प्रदूषण का दानव Poem by Upendra Singh 'suman'

प्रदूषण का दानव

Rating: 5.0

(१)
आज़ सुबह
कुहरे की ओट में छिपा
प्रदूषण का भीषण दानव जब नज़र आया
तो मेरे भीतर के आदमी ने मुझे समझाया
कि -
घने कुहरे में ‘मार्निंग वाक' पर न जाया करो.
खतरे को ख़ुद भी समझो
और दूसरों को भी समझाया करो.

(२)

भागो! भागो!
दिल्ली से भागो!
मेरा दर्दे दिल रो रहा है,
चिल्ला रहा है
क्योंकि -
प्रदूषण का प्रलयंकारी दानव
उस पर अंधाधुंध खंज़र चला रहा है.

Monday, January 11, 2016
Topic(s) of this poem: fog
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 11 January 2016

'प्रदूषण का प्रलयंकारी दानव' जब दिलो-दिमाग 'पर अंधाधुंध खंज़र चला रहा है' तो साफ़ हवा में साँस लेना भी कड़ी चुनौती बन जाता है. लेकिन इंसान इतना मजबूर है कि इनसे भाग भी नहीं सकता. एक दारुण समस्या की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये धन्यवाद, मित्र.

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