एक लम्हा Poem by Priya Guru

एक लम्हा

Rating: 4.5

एक लम्हा मुझे हर शाम बुलाता है
कुछ ख़ास ही है बस तेरी बात बढ़ाता है
तेरी आँखों की कभी तोह कभी तेरी बात बताता है
कहना कुछ चाहता नहीं शायद, पर मैं सुनता हूँ घोर से

यूँही जो कल था वो मुझे आज बताता है
दीवानो लायक गुफ्तगू में उलझा हूँ जब भी
कहता है मैं तुझसे हूँ और तेरी बात बताता हूँ
शतिरबाजी है उसकी जो हमारे को आज बताकर कल दिखाता है

क्या वो लम्हा तुझको भी बुलाता है
ज्यों मुझे सताकर जाता है, क्या तुझे भी सताता है
क्या होती है शतिरबाजी तेरे सायें में उसकी

तोह क्यों ना हम तुम संग एक शाम सजाते है
टूटे दिए हटाकर उस पल कुछ नए दीपक जलाते है
जो आता है हमारे पास उससे वहाँ बुलाते है
अपनी बात बताते है और अपनी बात कराते है

Tuesday, January 12, 2016
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COMMENTS OF THE POEM
Manish Bhanu 15 January 2016

..जो आता है हमारे पास उससे वहाँ बुलाते है अपनी बात बताते है और अपनी बात कराते है... ...mentioned that moment in a beautiful way! !

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Rajnish Manga 12 January 2016

कहता है मैं तुझसे हूँ और तेरी बात बताता हूँ शतिरबाजी है उसकी जो हमारे को आज बताकर कल दिखाता है.../ मानवीय सोच की परते दिखाती एक रोचक कविता. धन्यवाद, प्रिय गुरू साहिबा.

0 0 Reply
Aarzoo Mehek 12 January 2016

Ye lamhe hi to humara sarmaya hai...jeelo isko har pal. khoobsurat kavita Priya.

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