आचल की छाव Poem by Ajay Srivastava

आचल की छाव

ऐ नदान मनुष्य क्यो मोह करता अपने आप से |
कर ले प्रण त्याग दे निजी मोह को कदम बडा देश के लिए |

पुकार रहा देश तेरा, ये दुहाई है इस की |

स्वय के दर्द मे दिल से उपचार खोज जूट जाता |
देश के दर्द मे ऐ मनुष्य क्यो विमुख हो जाता है |

स्वय के लिए भेद-भाव की लडाई लड लेता है |
देश के लिए क्यो कर उदासीन हो जाता है |

अपनी जय जयकार के धन लूटा दे |
देश की जय जयकार के लिए सूखा व अकाल का प्रदर्शन कर दे |

अपने धर्म के लिए मान समान्न की लडाई लड ले |
देश धर्म के मान समान्न पर वाद-विवाद, स्वय ईच्छा का प्रशन बना दे |

ऐ मनुष्य क्यो है ईतना बेबस, क्यो स्वय मोह मे लिप्त है |
वन्देमातरम, भारत माता की जय मे |

क्यो नही ऐ मनुष्य मातृभूमी को देख पाता |
ये ही तो तुझे तुझसे ज्यादा चाहती है |

ये मातृभूमी है तुझसे कभी प्रशन नही करती |
यही मातृभूमी हम सब को दिल मे बसाती है |

ये है हम सबको अपने आचल की छाव मे रखती |

आचल की छाव
Monday, March 21, 2016
Topic(s) of this poem: patriotism
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