हम.रोज.ऐसा.कुछ.कर.जाते.हैं, Poem by Dr. Navin Kumar Upadhyay

हम.रोज.ऐसा.कुछ.कर.जाते.हैं,

हम.रोज.ऐसा.कुछ.कर.जाते.हैं,
मँसूबे.मन. के धरे रह.जाते.हैं ।
हम.उनसे.कुछ.कह.पाते.नहीं,
वे भी. मुझे.देखते रह.जाते.हैं।।
कई.बार.जी.में आया मुझको,
पता. नही उनके दिल का.मुझको,
कही ं मान.न लें मेरी बात.बुरी,
हम.उनसे कुछ.कह.नहीं.पाते हैं।
नजरें दिल.की बात देती उगल,
हृदय.धड़कनें.बन.रहीं ऊबल,
गरम साँसे.बना. देंगी. पिघल,
'नवीन'इसी आश रह.जाते.है।

Wednesday, March 8, 2017
Topic(s) of this poem: loneliness
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