हम बिना नकाब लगाये Poem by Dr. Navin Kumar Upadhyay

हम बिना नकाब लगाये

हम बिना नकाब लगाये, एक पग न चल सकते हैं।
यही जिन्दगी का वसूल, हम न जिंदा रह सकते हैं।।
गल्ती से भी नकाब खिसक जाती यदि मेरे कँधे से,
जमाने वाले इसको पुरजोर पकड़ने को कहते हैं।।
दोनों आँखें अहले सुबह, खुलती मेरी जब तनहे में,
जमाना घिर जाने के पहले, भरपूर धूल झोंक देते हैं।
लेते रहते नाम राम-रहीम के ओ मेरे प्यारे, मेरे भाई,
लेकिन हम दुनिया वाले, कभी इक पल न हो सकते हैं।
पहनते सिर ताज और का, तस्वीर किसी और की महबूब,
'नवीन'जिगर कोई बसता, जुबाँ पे किसी और का लेते हैं।

Sunday, March 12, 2017
Topic(s) of this poem: logic
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