सांसो की ना जाने कहाँ रफ्तार गई? Poem by Aftab Alam

सांसो की ना जाने कहाँ रफ्तार गई?

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सांसो की ना जाने कहाँ रफ्तार गई? // आफताब आलम ‘दरवेश'
मत कहो, संसद की गरीमा भंग हो गई!
शायद हमारी सोंच ही तंग हो गई ॥
भ्रष्टाचार, इस दौर की बड़ी मजबूरी है,
वोटरों को खुश करना भी तो जरूरी है!
इंसानियत ना जाने कहाँ सो गई,
हमारी स्मीता, गरीमा कहाँ खो गई//
गद्दारों के हाथ देश की कुंजी लग गई
जाने कहाँ कहाँ इनकी पुंजी लग गई ॥
वो आह कहाँ, वो चाह गई
जाने कहाँ आन बान शान गई ।//
जब भी कभी हम, अंधे हो, मुर्ख बने हैं,
हमारे हाथ मासूमों के लहू से सने हैं ॥
ना कोई गमख्वार ना ईंसानियत यहाँ
ना जाने कहाँ हमारी वो वकार गई//
दिलों में जाति धर्म के पहरे हैं
हमारे जख्म कितने गहरे हैं ॥
वो तहजीब वो संस्कार कहाँ
ना जाने कहाँ, वो झंकार गई//
चलो अच्छा है, सुबह की फिराक में तो हूँ
काँटे ही सही, फूलों के ख्वाब में तो हूँ
डरता हूँ, ख्वाब की अजादी न छीने कोई
सांसो की ना जाने कहाँ रफ्तार गई? //
सच्चाई पर हाथ रख कर झूटी कसमें खा तो लूँ
ईमानदारी के म्युजियम में झुठे गीत गा तो लूँ ॥
भाईयों बहनों की उदासी तोड़, जरा इन्हें हँसा तो लूँ
मेरी नींद चल तू ही बता, कहाँ मेरी गैरत गई//
ये दौरे तबाही है हम इसके सिपाही हैं सच है
तबाही की गोद में तरक्की, शहंशाही है सच है ॥
हमारी तबाही की नुमाईश के झरोखे; झगड़े
हमारी जुबान गई, ऊनकी गुफ्तार गई//

Tuesday, September 16, 2014
Topic(s) of this poem: patriotism
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Aftab Alam

Aftab Alam

RANCHI,
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