आते जाते राहों मैं हम, किनको खोजा करते हैं,
पतझड़ के इस मौसम मैं, क्यों बसंत को खोजा करते हैं,
रूखी सूखी हवाओं मैं, क्यों तरावट को ढूंढा करते हैं,
बे - मुरवत इन फ़िज़ाओं मैं, क्यों स्पष्ट संसार को ढूंढा करते हैं,
रेशम के कीड़ों की भाँती, क्यों अपने अंतर से ख़ुद को ही ढांपा करते हैं,
सिमटे ख़ुद ही ख़ुद मैं हम, क्यों ख़ुद को ही ढूंढा करते हैं,
वक़्त की तीखी हवनों से, सूखे पत्तों की भाँती सर - सारा कर क्यों, उड़ जाया करते हैं,
तंग आकर वक़्त की हंसी - ठिठोली से, क्यों आहों को, भरा हम करते हैं,
साहिल पर आकर अब इस जीवन के, बीते लम्हों के थपेड़े, सहा क्यों करते हैं,
गैरों की इस दुनिया मैं, क्यों अपनों को ढूंढा करते हैं,
निर्वान बब्बर
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