अपने ही परिश्रम का फल चखना.. apne hi parisram kaa Poem by Mehta Hasmukh Amathaal

अपने ही परिश्रम का फल चखना.. apne hi parisram kaa

अपने ही परिश्रम का फल चखना

में हिरन बनकर भागु वन में
जब की खुश्बू छिपी है तन में
मुझे चेन नहीं पलभर का
रहता है इनेजार रातभर का।

रातभर सितारे चमकते रहते है
अपने वजूद को बताते रहते है
उनको चांदनी से कोई मतलब नहीं है
बस अपने टिमटिमाने पर रुआब है।

चांद को अपनी चांदनी से मतलब जरूर है
पर अहंकार और गौरब की कोई बात बही है
मंसूबा बनाया हुआ है जो जज्बे में दीखता है
चांदनी रात में मुखड़ा बहुत ही चमकता है।

सब के पास कुछ ना कुछ जरूर है
पर सब अनजान और बेखबर है
अपना मूल्य कोई नहीं जानता!
सब कुछ न कुछ सोच कर पीछे भागता।

अपना अवमूल्यन खुद करते हो
फिर उसकी शिकायत दूसरों से करते हो
रन में मीठे पानी की कल्पना करते है
और फिर वोही रफ़्तार से पीछे भागा करते हो।

खुद के पास कुछ नहीं होने पर भी
ख़याल दिल में आ आये कभी भी
इसका आना ही मन को ओर खुद को गिराना है
बस एक बात याद रखे की' आगे बस खुद ही चलना है '

ना मृगतृष्णा अब है और ना ही कोई सुख की कल्पना
बस कुछ है भी तो वो है अपने आप ही आगे बढ़ना
खुद परिश्रम करना ओर फल को भोगना
इसी से होगी उन्नति और फलश्रुति दोगुना।

मुझे मिलना है वो मिलकर रहेगा
उसी का आशीर्वाद हमेशा रहेगा
बस कर सको तो एक बात याद रखना
खाने की इच्छा हो जाये तो अपने ही परिश्रम का फल चखना

Sunday, October 12, 2014
Topic(s) of this poem: poem
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Mehta Hasmukh Amathaal

Mehta Hasmukh Amathaal

Vadali, Dist: - sabarkantha, Gujarat, India
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