दिले नादां (Dile Nadan) Poem by Pushpa P Parjiea

दिले नादां (Dile Nadan)

Rating: 5.0

तकते रहे राहें हम उम्र के हर मोड़ पर
उम्मीद का छोड़ा न दामन क़यामत की दस्तक होने तक
मुस्कान सजाये होठों पर हम जीते गए अंतिम आह तक
सोचा कभी मिल जाय शायद कहीं खुशियों का आशियाँ हमें भी
पर थे नादान हम कि न समझ सके बेवफा ज़माने के सितम आज तक
अंतिम मोड़ पर पता चला कोई नहीं अपना यहाँ
हम तो इक मेहमान थे सबके लिए बस आज तक
कितने नादाँ थे न समझ सके अपनों की फ़ितरत को
कितने नादाँ थे न समझ सके बेगानों की मतलब परस्ती को
हर पल का मुस्कुराना पड़ गया भारी यहाँ
सबने भुला दिया ये कहकर कि हम तो अकेले में भी मुस्कुरा लेते हैं
दर्दे दिल की दास्ताँ न सुना ए दिल! किसी को
ये बस्ती है जहाँ इंसा के दिल पत्थर के होते हैं

Friday, April 15, 2016
Topic(s) of this poem: alone
COMMENTS OF THE POEM
Pushpa P Parjiea 17 April 2018

Thanks aloft Ravi kopra ji

0 0 Reply
Rajnish Manga 15 April 2016

अपनों की उदासीनता, स्वार्थ, सामाजिक संबंधों के पाखंड और मतलबपरस्ती से उपजी उदासी व दर्द को आपकी इस कविता में बड़ी खूबसूरती से अभिव्यक्त किया गया है. धन्यवाद, बहन पुष्पा जी. ऐसे ही लिखती रहें. दर्दे दिल की दास्ताँ न सुना ए दिल! किसी को ये बस्ती है जहाँ इंसा के दिल पत्थर के होते हैं

1 0 Reply
Pushpa P Parjiea 17 April 2016

दर्दे दिल की दस्ता को सही स्वरुप में समझने के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद भाई बहुत खूब सुरती से आपने सुन्दर लफ़्ज़ों में टिपण्णी की है ... पुनः सुख्रिया भाई

0 0
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success