नये स्तंभ
एक एक कर चूर हो गये
थे जितने भी स्तंभ पुराने
नये जगत के नये थे किस्से
नये थे अब नभ में भी तारे ।
तारों की जब बात चली है
सूरज भी एक तारा है
हिला नही करता कहते है
क्या जगह एक है टिका खड़ा ।
कहते है जीवन से ही बस
यह जीवन है प्रेरित होता
जीवन के प्रारंभ में क्या था
किसने है कब देखा जाना ।
धरती डोल रही है नभ में
या फिर नभ भी डोल रहा
अनुमानों-प्रतिमानों पर बस
विज्ञान जगत है टिका हुआ ।
मानव है हम है दानव भी
कब कैसा रूप दिखा बैठें
इतिहास के पिछले पन्नों पर
अपना अधिकार जमा पैठें ।
पुरस्कार की अभिलाषा ना
जीत की मन में हो आशा
करतब मानव के हों ऐसे
हों मानवता की परिभाषा ।
(आओ मिलकर निर्माण करें
सृष्टि का फिर आह्वान करें)
नही जीतने देश हमें
हम जीत दिलों की चाहेंगें
इस पार अगर हम हार गये
उस पार हार ना मानेंगें ।
धरती के हम स्तंभ नये
धरती की लाज बचायेंगें
जीवन दे सकते नही अगर
नही जीवन नाश करायेंगें ।
हे इष्ट देव मेरे ईश्वर
है धरती क्या सचमुच नश्वर
एक जीवन जीकर देख लिया
क्या पायेंगे फिर यह अवसर ।
अभय शर्मा
मुम्बई,13 फरवरी 2010 <.p> Visits:
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Really a well expressed beautifully narrated wonderful poem...liked it...thanx for sharing :)