Naye Stambh Poem by Abhaya Sharma

Naye Stambh

नये स्तंभ

एक एक कर चूर हो गये
थे जितने भी स्तंभ पुराने
नये जगत के नये थे किस्से
नये थे अब नभ में भी तारे ।

तारों की जब बात चली है
सूरज भी एक तारा है
हिला नही करता कहते है
क्या जगह एक है टिका खड़ा ।

कहते है जीवन से ही बस
यह जीवन है प्रेरित होता
जीवन के प्रारंभ में क्या था
किसने है कब देखा जाना ।

धरती डोल रही है नभ में
या फिर नभ भी डोल रहा
अनुमानों-प्रतिमानों पर बस
विज्ञान जगत है टिका हुआ ।

मानव है हम है दानव भी
कब कैसा रूप दिखा बैठें
इतिहास के पिछले पन्नों पर
अपना अधिकार जमा पैठें ।

पुरस्कार की अभिलाषा ना
जीत की मन में हो आशा
करतब मानव के हों ऐसे
हों मानवता की परिभाषा ।

(आओ मिलकर निर्माण करें
सृष्टि का फिर आह्वान करें)

नही जीतने देश हमें
हम जीत दिलों की चाहेंगें
इस पार अगर हम हार गये
उस पार हार ना मानेंगें ।

धरती के हम स्तंभ नये
धरती की लाज बचायेंगें
जीवन दे सकते नही अगर
नही जीवन नाश करायेंगें ।

हे इष्ट देव मेरे ईश्वर
है धरती क्या सचमुच नश्वर
एक जीवन जीकर देख लिया
क्या पायेंगे फिर यह अवसर ।

अभय शर्मा
मुम्बई,13 फरवरी 2010 <.p> Visits:

Tuesday, January 19, 2016
Topic(s) of this poem: nature
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COMMENTS OF THE POEM
Abhilasha Bhatt 19 January 2016

Really a well expressed beautifully narrated wonderful poem...liked it...thanx for sharing :)

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Abhaya Sharma

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Bijnor, UP, India
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