Sapane Ko Marate Dekha सपने को मरते देखा Poem by S.D. TIWARI

Sapane Ko Marate Dekha सपने को मरते देखा

मैंने सपने को मरते देखा,
माटी में कहीं बिखरते देखा।

सपने लेकर वह जन्म लिया
या जनमते ही सपने जागे,
देश दुनिया में कहीं भी जाये
सदैव ही सबसे आगे भागे।
उसको निर्धनता का अभिशाप
औरों का भाग्य सुघरते देखा।

खेतों में काम, कर के घर आता
जाके कहीं तब, स्कूल वो जाता;
मात पिता के साथ में मिल कर
घर के काम में हाथ बंटाता।
खूंटे से कभी जब खुल गया तो
बछड़े को पछाड़ धरते देखा।

स्कूल में तो प्रथम आ जाता
आगे की राह कौन दिखाता!
बाह्य दुनिया का पता नहीं था
स्कूल से आगे कहाँ वो जाता!
प्रशिक्षण को पैसा पास नहीं
धन का अभाव अखरते देखा।

लगे नजर ना उसे किसी की
बांधा था माँ ने काला धागा;
लाल, श्रृंग को छूकर आये
देवी, देवों से मन्नत माँगा।
उड़ने को मिला आकाश नहीं
पंखों को पुनः बटुरते देखा।

सोचा, हो जाये पुलिस में भर्ती
संभवतः वहीँ भाग्य भी जागे;
दौड़ लेगा वह चोरों के पाछे
दौड़ सकता जो देश के आगे।
प्रतिभा बड़ी पर कद छोटा था
खुलने से द्वार नकरते देखा।

माटी का जन्मा रहा माटी में
प्रतिभा भी हो गयी मटियामेट;
माटी को कर दिया जीवन अर्पित
सपनों को रखा माटी में समेट।
गेहूं बाली, सरसों फूलों पर
मकरंद संग विचरते देखा।

उर भरा सदा उत्साह, लगन
और विजय का पावक होता;
सपनों को हवा मिल जाती तो
वह आज देश का धावक होता।
हताश, निराशा हाथ में लेकर
आस को ताक पर धरते देखा।

एस ० डी ० तिवारी

Thursday, May 14, 2015
Topic(s) of this poem: society
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success