Zindadil Poem by Kumar Mohit

Zindadil

Rating: 5.0

' ज़िंदगी के ज़ख्मों से, जूझता एक ज़िंदादिल;
ज़िंदगी में ज़िंदगी को, ढूंढता एक ज़िंदादिल;
चाहे कैसी भी समस्या, आ खड़ी हो सामने;
हर समस्या का निवारण, ढूंढता वो ज़िंदादिल;
ज़िन्दगी के ज़ख्मों से…………


ठूंठ को देखा खड़ा, तो आ गयी उस पर दया;
तृष्णा से पीड़ित वृक्ष को, भर के उसने जल दिया;
चल दिया फिर वो दीवाना, चल दिया;
इस तरह से हर जड़ों में चेतना को ढूंढता वो ज़िंदादिल;
ज़िन्दगी के ज़ख्मों से…………………………

सभ्यता की ताक पर, है कई रिश्ते बने;
संस्कृति की आड़ में, है कई बंगले खड़े;
सत्यता की पीठ पीछे, झूठ के जो बोल हैं;
इस तरह के सत्य में, सत्यता को ढूंढता वो ज़िंदादिल;
मानवों के बीच मनु को, ढूंढता वो ज़िंदादिल;
ज़िन्दगी के ज़ख्मों से…………………

Thursday, January 8, 2015
Topic(s) of this poem: Life
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
Its all about Life
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 09 January 2015

समाज की दोहरी मानसिकता पर सुन्दर कटाक्ष. आज हमें कवि की इसी ज़िंदादिली को अपने भीतर उतारने की ज़रुरत है. इस अत्यंत प्रेरक कविता के लिये मेरा धन्यवाद स्वीकार करें.

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