Tarun Upadhyay

Tarun Upadhyay Poems

मैं स्त्री हूँ
रत्नगर्भा, धारिणी
पालक हूँ, पोषक हूँ
अन्नपूणा,
...

आसमान सा है जिसका विस्तार
चॉद-सितारों का जो सजाए संसार
धरती जैसी है सहनशीलता जिसमें
है नारी हर जीवन का आधार
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मैंने हँसाना सीखा है
मैं नहीं जानती रोना।
बरसा करता पल-पल पर
मेरे जीवन में सोना॥
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राणा प्रताप इस भरत भूमि के, मुक्ति मंत्र का गायक है।
राणा प्रताप आज़ादी का, अपराजित काल विधायक है।।
वह अजर अमरता का गौरव, वह मानवता का विजय तूर्य।
आदर्शों के दुर्गम पथ को, आलोकित करता हुआ सूर्य।।
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रोटी रोटी करता है हर गरीब का पेट
स्वाभिमान से नही भरता गरीब का पेट
ईमानदारी से नही भरता गरीब का पेट
सांतवना से नही भरता गरीब का पेट
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भीख के कटोरे मैं मजूबूरी को भरकर...
ट्रॅफिक सिग्नल पे ख्वाबों को बेच कर
ज़रूरत की प्यास बुझाता बचपन............
नन्हे से जिस्म से करतब दिखा कर..
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प्यारी माँ मुझको तेरी दुआ चाहिए, तेरे आँचल की ठंडी हवा चाहिए,
लोरी गा गा के मुझको सुलाती है तू, मुस्कुराकर सबेरे जागती है तू,
मुझको इसके सिवा और क्या चाहिए, प्यारी माँ मुझको तेरी दुआ चाहिए।
तेरे ममता के साये मे फूलु फलु, थाम कर तेरी उंगली मै बढ़ता चालू,
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नारी से है हम, नारी से हो तुम,
नारी ही माँ बहन है,
नारी ही है बहू बेटियाँ ।
नारी से घर स्वर्ग बना है,
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माँ तुम महक हो
उस फूल की
जिसे रिश्ता कहते हैं
माँ तुम फूल हो
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पुराने जख्म भर जाएँ.....
तो कह दें हम भी कि
अब नया वक़्त आया है
दिलों से दर्द मिट जाए...
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बढे कदम रुकते नहीं

बढे कदम रुकते नहीं
रुके कदम बड़ते नहीं
...

बड़ा भोला बड़ा सादा बड़ा सच्चा है
तेरे शहर से तो मेरा गाँव अच्छा है
वहां मैं मेरे बाप के नाम से जाना जाता हूँ
और यहाँ मकान नंबर से पहचाना जाता हूँ
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क्यूँ दुनिया ने ये रस्म बनाई है
करके इतना बड़ा कहते है जा बेटी तू पराई है
पहले दिन से ही उसको ये पाठ पढाया जाता है
सजा के लाल जोड़े में दुल्हन बनाया जाता है
...

चाँद सूरज, सितारे सभी दिलनशीं,
छा रही हो जहाँ हर तरफ ही खुशी,
ऐसे बचपन को मैं ढूँढता हूँ ||
...

चाँद सूरज, सितारे सभी दिलनशीं,
छा रही हो जहाँ हर तरफ ही खुशी,
ऐसे बचपन को मैं ढूँढता हूँ ||

खो गया जो जवानी के सैलाब में,
...

कुते को घुमाना याद रहा, और गाय को रोटी देना भूल गये ।
पार्लर का रास्ता याद रहा, लम्बी चोटी भूल गये ।
फ्रीज, एसी, कुलर याद रहा पानी का मटका भूल गये ।
रिमोट तो हमको याद रहा, बिजली का खटका भूल गये ।
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।। जय माँ शारदा ।।
हे विद्या की देवी आपको
शत-शत कोटि प्रणाम।।
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जब विदेशी Status Symbol हो और
स्वदेशी Cheap लगे तो देश आगे कैसे बढे.
जब नहाने के बाद Deo लगाना जरुरी और
भगवान के सामने सर झुकना Boring लगे
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ये आज क्यों कोई.. कमी सुलगी
पाँव रक्खा तो झट.. ज़मीं सुलगी
कुछ मौसम ही.. घटा में भीगा है
या आँखों से ही.. ये नमी सुलगी
...

हम के फेकलू पेट माड़ा के
माईहो तू नीके काइलू
हम के ना जनमा के
का करिती हम तोहारा आताना
...

Tarun Upadhyay Biography

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The Best Poem Of Tarun Upadhyay

मैं स्त्री हूँ

मैं स्त्री हूँ
रत्नगर्भा, धारिणी
पालक हूँ, पोषक हूँ
अन्नपूणा,
रम्भा, कमला, मोहिनी स्वरूपा
रिद्धि- सिद्धि भी मैं ही,
शक्ति स्वरूपा, दुर्गा काली, महाकाली,
महिषासुरमर्दिनी भी मैं ही
मैं पुष्ट कर सकती हूँ जीवन
तो नष्ट भी कर सकती हूँ,
धरती और उसकी सहनशीलता भी मैं
आकाश और उसका नाद भी मैं
आज तक कोई भी यज्ञ
पूर्ण नहीं हो सका मेरे बगैर,
फिर भी
पुरुष के अहंकार ने, उसके दंभ, उसकी ताकत ने,
मेरी गरिमा को छलनी किया हमेशा ही
मजबूर किया अग्नि -परीक्षा देने को, कभी किया चीर-हरण...
उस खंडित गरिमा के घावों की मरहम -पट्टी न कर
हरा रखा मैंनें उनको
आज नासूर बन चुके हैं वो घाव
रिस रहे हैं
आज मैं तिरस्कार करती हूँ,
नारीत्व का, स्त्रीत्व का मातृत्व का, किसी के स्वामित्व का,
अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए
टकराती हूँ, पुरषों से ही नहीं, पति से भी
(पति भी तो पुरुष ही है आखिर)
स्वयं बनी रहती हूँ पाषाणवत, कठोर, पुरुषवत
खो दी है मैंनें
अपने अन्दर की कोमलता, अपने अन्दर की अलहड़ता,
अपने अन्दर की मिठास
जो लक्षण होता है स्त्रीत्व का
वह वात्सल्य,
जो लक्षण होता है मातृत्व का
नारी मुक्ति की हिमायती बनी में
आज नहीं पालती बच्चों को
आया की छाया में पलकर कब बड़े हो जाते हैं
मुझे पता नहीं, क्योंकि
मैं व्यस्त हूँ अपनी जीरो फिगर को बनाए रखने में,
मैं व्यस्त हूँ उंची उड़ान भरने में
लेकिन आत्म-प्रवंचना आत्मग्लानी जागी
जब मेरे ही अंश ने मुझे
दर्पण दिखाया
उसके पशुवत व्यवहार ने मुझे
स्त्रीत्व के धरातल पर लौटाया
एक क्षण में आत्म-दर्शन का मार्ग खुला
मेरी प्रज्ञा ने मुझे धिक्कारा
फटी आँखों से मैनें अपने को निहारा
पूछा अपने आप से, तुम्हारा ही फल है ना ये?
मिठास देतीं तो मिठास पातीं
संस्कार देतीं तो संस्कार पाटा वह अंश तुम्हारा
'पर नारी मातृवत' के
न बनता अपराधी वह
गर मिलती गहनता संस्कारों की
सृजन के लिए जरूरी हे
स्त्रीत्व, पौरुषत्व दोनों के मिलन की
मन और आत्मा के मिलन की
आज जाग गई हूँ
प्रण करती हूँ, अब ना सोउंगी कभी
आत्म-जागरण के इस पल को न खोउंगी कभी
पालूंगी, पोसूगी अपने अंश को
दूंगी उसे घुट्टी लोरियों में
अच्छा पुरुष, अच्छी स्त्री बनने की
जैसे दी थी जीजाबाई ने शिवाजी को
जैसे दी थी माँ मदालसा ने अपने बच्चों को
करेंगे मानवता का सम्मान
तभी बढ़ेगा
मेरी कोख का मान |

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