हम समझते, तुम कहीं बसते सदा, Poem by Dr. Navin Kumar Upadhyay

हम समझते, तुम कहीं बसते सदा,

हे प्रियवर, हम समझते, तुम कहीं बसते सदा,
और तुम्हारे वास सदा ही रहते, कहीं और है।
हम न जान पाते, न ही कभी पहचान पाते,
रखते यह गुमान सदा, आ गये तेरे द्वार ओर हैं।।
सदा ही मन लगा रहता, तुम तक पहुँचेंगे कब,
चलते रहते कुछ अलग सदा, पहुँचते किसी ठौर हैं।
हाथ पकड़ कर तुम ही, साथ चलो और चलाओ बस,
'नवीन'अनत न कछु बल, तेरे कर बस दानी सिरमौर हैं।

Tuesday, September 19, 2017
Topic(s) of this poem: love
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