Vikas Kumar Giri

Vikas Kumar Giri Poems

आके कान्हा फिर से बंशी बजा दे
कलयुगी गोपियों को फिर से नचा दे
आके कान्हा तू फिर से बंशी बजा दे
...

भूखे, गरीब, बेरोजगार, अनाथो और लाचार की दास्तान लिखने आया हूँ
हाँ मैं आजाद हिंदुस्तान लिखने आया हूँ|

एक ही कपड़े में सारे मौसम गुजारनेवाले
...

माँ अगर तू जन्म न देती तो मैं दुनिया ही न देख पाता
माँ तू खुद भूखी रहकर खिलाई ना होती तो मैं भूखा ही रह जाता
अगर तू चलना न सिखाती तो मैं चल नहीं पाता
माँ अगर तू लोरी गा के सुनाइ ना होती तो मैं चैन से सोया नहीं होता|
...

जब से तुम रूठी हो तब से दिल
ये टुटा है
अब मैंने जाना है लोग इसमें क्यों बीमार है
शायद यही प्यार है, शायद यही प्यार है|
...

मैं अकेला थक सा जाता हूँ फिर जब तेरी कदमो की सुनता हूँ आहट, जब याद आती है तेरी चाहत
इस जूनून में मैं हजार बार तोड़ दू
ये तेरे प्यार का ही जूनून है जो मैं पहाड़ तोड़ दू|
...

कैसा ये रीति-रिवाज बना
जो लड़कियों के लिए अभिशाप बना इसकी वजह से न जाने कितनी लड़कियां चढ़ जाती है फांसी
क्या तुझमे औकात नहीं है खुद की शादी
करने की
...

कभी जो मै रुठु तो तू मनाए
कभी जो तू रूठे तो मैं मनाऊं
चलती रहे इसी तरह जिन्दगानी रे
दोस्त तू ही सोना चांदी रे.....
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छेड़नी है हिन्द में हक़ की लड़ाई फिर से हो जाओ एक हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई
किसी के बहकावे में हम नहीं आएंगे भाई
अब हम नहीं करेंगे कभी भी लड़ाई
...

दुनिया में होते है ये सबसे महान
जिसकी करते है सभी गुणगान
'गुरु विश्वामित्र, बशिष्ठ, अत्रि'
जिसको पूजते स्वयं भगवान
...

लालटेन की रोशनी में पढ़ के मैंने I.A.S
बनते देखा है,
बिजली की चकाचौंध में मैंने बच्चे को
बिगड़ते देखा है,
...

दिल की बस यही तमन्ना थी, अब लब पर
आ ही गई है
होठ कुछ कहे या न कहे इशारे सब कुछ
समझा ही गई है
...

फिर से निकलेंगे चुनावी मेंढक इस चुनाव में,
वो घोषणाओं के पुल बांधेंगे,
लोगो को लालच देकर बहलायेंगे और फुसलायेंगे,
सभी जाति-धर्मों के लोगों से अलग -अलग मिलकर
...

तुझे कुछ होने पर जिसका
कलेजा छलनी हो जाता
वो होती है माँ
...

क्या लिखूं
ये बेवजह कोरोना का कहर लिखूं
या लाशों का शहर लिखूं
लोगो का तड़पना लिखूं या
...

ले कटोरा हाथ में चल दिया हूं फूटपाथ पे
अपनी रोजी रोटी की तलाश में
मैं भी पढना लिखना चाहता हूं साहब
मैं भी आगे बढ़ना चाहता हूं साहब
...

The Best Poem Of Vikas Kumar Giri

Aake Kanha Phir Se Bansi Baja De

आके कान्हा फिर से बंशी बजा दे
कलयुगी गोपियों को फिर से नचा दे
आके कान्हा तू फिर से बंशी बजा दे

कर रहे भष्ट्राचार और भष्ट्राचारियों को तू सजा दे
बढ़ रहे अत्याचार और अत्याचारियों को मिटा दे
आके कान्हा फिर तू फिर से बंशी बजा दे

बात बात पे होती है गंगा, यमुना की सफाई की बात रे
हुई न आज 70 बरसो में साफ रे
फिर से तू आके इसे निर्मल करवा दे
आके कान्हा फिर से बंशी बजा दे

लाज तू इस कलयुगी द्रोपदी का बचा दे
लचरे और लाचार हुए कानून व्यवस्था का सुधार करवा दे
आके कान्हा फिर से बंशी बजा दे

फिर से तू वही धुन तू सुना दे
आर्यावर्त के लोगो को फिर से झुमा दे
वेरी हो गए लोग एक दूसरे के
उसको आके प्रेम का पाठ पढ़ा दे
आके कान्हा फिर से बंशी बजा दे

अब तो मोहे लगी तोह पे ही आस रे
दुनिया का एकमात्र तू ही विशवाश रे
आके इस युग कलयुग का उद्धार करवा दे
आके कान्हा फिर से बंशी बजा दे.....

~विकास कुमार गिरि

Vikas Kumar Giri Comments

Aakash Kumar Giri 29 November 2016

Very good poem on Bharat

2 0 Reply

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