हँस कर्मेन्द्रिय, वाक् पाणि पाद उपस्थ गुप्त अँग
देव एव पँच ज्ञानेन्द्रिय, शब्द स्पर्श रुप रस गँध।
सूर्यदेवता स्वयं शब्द अर्थ रस छन्द नाद रुप
भास्कर स्वयं विज्ञानमय आनन्द आनंदघन रुप।
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शाँति-सुख वैभव-प्रदायी हे देव रवि! सँकल्प बना दें दृढ़ निश्चयकर,
आत्म-प्राण शक्ति परिपूण^ बने, सब बिधि हो मँगलमय हितकर।
तन-मन-वचन सहित हम करते, आप श्रीगुरुदेव में समर्पण,
स्वीकार करें मुझे हे देव भास्कर! चाहता 'नवीन' आप श्रीगुरु चरण शरण।।
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