pratima singh

pratima singh Poems

हर रात मैं,
अपने जिस्म को सजाती, संवारती हूँ..
फिर तलाशती हैं आँखें,
एक दूसरे जिस्म को..
...

तुम्हारे माथे की एक शिकन,
और ज़िंदगी सज़ा सी लगने लगती है,
तुम मुझमें वैसे हो..
जैसे, जिस्म में साँसें..
...

The Best Poem Of pratima singh

वेश्या...

हर रात मैं,
अपने जिस्म को सजाती, संवारती हूँ..
फिर तलाशती हैं आँखें,
एक दूसरे जिस्म को..
जो मेरे जिस्म के बिस्तर पे सिलवटें देता है..
साथ मे चंद सिक्के भी..
वो मेरी हड्डियों मे लिपटे मांस को
आकार देने की कोशिश करता है.
फिर खुद को खो देता है..
उन्ही सिलवटों मे कहीं..
रूह वहीँ पास में चहलकदमी करती है..
पूरी रात..
जिस्म की तरह आदत नही उसे इन सबकी..
वो हर रात हैरान होती है..
झुंझलाती है मुझपे..
टोकती भी है,
यूँ जरूरतों के आगे,
खुद को परोसने से रोकती भी है..
नही समझती,
ये सब ऐसे ही चलेगा हमेशा..
जिस्मो का खेल होगा..
वो तमाशा देखेगी..
फिर एक दिन ऊब कर..
जिस्म का साथ छोड़ देगी..
हमेशा के लिए..।

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