लाख समझाया अपने मन को, भूलने की राह न तकते हैं,
हजार बार बताया नजरों को, तेरी दर से न तनिक हटते हैं,
कई बार बताया जुबान को, लेकिन तेरा ही नाम लेते हैं,
अपने जादू का बता दो इल्म, क्यों हम तुम पर ही मरते हैं।
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शाँति-सुख वैभव-प्रदायी हे देव रवि! सँकल्प बना दें दृढ़ निश्चयकर,
आत्म-प्राण शक्ति परिपूण^ बने, सब बिधि हो मँगलमय हितकर।
तन-मन-वचन सहित हम करते, आप श्रीगुरुदेव में समर्पण,
स्वीकार करें मुझे हे देव भास्कर! चाहता 'नवीन' आप श्रीगुरु चरण शरण।।
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रात भर चाँद तारे एक-दूजे को देखते रहे,
न तारों में एक ने कहा, न कुछ चाँद ने कहा।
सागर में दिन -भर हम आज तरँग गिनते रहे,
उन सभी का सागर समाने का बस उमँग रहा।
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हे री गोरी! कहाँ चली तू,
कर पूरा साज श्रृँगार ।
सुभग बसन आभूषण साजे,
चमकते-दमकते उरहार।।
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रघुबर! तुमसे बढ़कर, तेरा नाम,
हम रटते रहते तेरा नाम बार-बार।
सँत भक्त हित अवतार धारे तुमने,
सहे वन -गमन, सीता-विरह तुमने,
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हर घर हर चौराहे हर कोई नाम तेरा लेता,
लेकिन आज तक मुझे दिखा न पाया कोई।
ऐसी क्या खामियां रहती बसती तुझमें सदा
नहीं बताना चाहता दरवाजा भी तेरा कोई।।
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हम किसी के भी अपने बन
हम किसी के भी अपने बन न सके
, गुनाहों की सौगात कर बैठे,
अब आ ही गया जब सागर सामने
, तब दुनिया के जज्बात भी सिमटे।