गया प्रसाद आनन्द की कविता वहशी दरिन्दा Poem by Gaya Prasad Anand

गया प्रसाद आनन्द की कविता वहशी दरिन्दा

महिला दिवस पर विशेष
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मेरी एक कविता ✍
'वहशी दरिन्दा'
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दिन - ब - दिन अपराध बढ़ता जा रहा है,
आदमी ही आदमी को खा रहा है ।
रक्षक ही भक्षक बनकर रौंदता है जिस्म को,
नारी पे संकट का बादल हर घड़ी मँडरा रहा है ।
आदमी ही आदमी को खा रहा है ॥

हर गली में घूमता भूखा हवस का भेडिया,
है पकड़ से दूर उसको कौन डाले बेडिया ।
भेडिया भूखा हवस का जिस्म नोचे खा रहा है,
दिन - ब - दिन अपराध बढ़ता जा रहा है ।
आदमी ही आदमी को खा रहा है ॥

दिल्ली, बदायूं ही हो घटना या शहर हो लखनऊ
गाँवों लुटती है निशदिन बेटियों की आबरू ।
घर से बाहर भी निकलना है काम मुश्किल बड़ा,
राहों में काँटे बिछे हैं ऊपर से कीचड़ पड़ा ।
न जाने कब किधर से कोई दरिंदा आ रहा है, दिन - ब -दिन अपराध बढ़ता जा रहा है ।
आदमी ही आदमी को खा रहा है ॥

दिन - ब -दिन आवाज़ उठती, बन्द करो ये अत्याचार ।
रुकने का न नाम लेता, बढ़ रहा है बलात्कार ।
नेता हों या कर्मचारी या हों चाहे थानेदार,
हर कोई अब है शिकारी, नारियों का करता शिकार ।
जुर्म के इस दुनियाँ में
हर कोई ज़हर पिला रहा है
नारी पे संकट का बादल
हर घड़ी मँडरा रहा है
आदमी ही आदमी को खा रहा है

अपने ही परिवार से ये डरती है हरदम सदा,
न जाने किस दोष पर दे दें ये मुझको सजा ।
दहेज का लोभी इन्हे घर में जिंदा जला रहा है,
नारी पे संकट का बादल हर घड़ी मँडरा रहा है ।
आदमी ही आदमी कोखा रहा है ।

धुल गये अरमान सारे, घुट गया उसका गला
कुछ नहीँ थे दोष उसके जो सजा उसको मिला
मर गई वो चीख करके हर कोई खामोश है
सबकी नज़रें कह रही हैं इसमे किसका दोष है
जेल में बहशी दरिन्दा खड़े खड़े मुसकुरा रहा है
दिन - ब -दिन अपराध बढ़ता जा रहा है
आदमी ही आदमी को खा रहा है
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नारियों से कहते 'आनन्द ' मन में तनिक विचार करें
सम्मान से जीना है तो पहनावे में सुधार करें
तोड़ दें ये बेडिया, उतार दें सारी चूड़ियां
न रहें अबला कभी संघर्ष करना सीखलें
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सीखले वो हर हुनर जो हुनर ही हथियार हो
अपनी रक्षा के लिये हे समय तय्यार हो
काम ये वो ही करें जो सबके मन को भा रहा है
दिन ब दिन अपराध बढ़ता जा रहा है
आदमी ही आदमी को खा रहा है ।

ये भाइयों तुम भी ज़रा सुन लो खोलकर अपना कान,
बहुत हो चुका बन्द करो अब न हो नारी का अपमान ।
काम येसा न करो जो खुद ही को लजा रहा है ।
दिन - ब -दिन अपराध बढ़ता जा रहा है,
आदमी ही आदमी को खा रहा है ।
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रचयिता ✍
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गया प्रसाद आनन्द
(आनन्द गौंडवी)
चित्रकार एवं कवि
Mo.9919060170
9838744002

गया प्रसाद आनन्द की कविता वहशी दरिन्दा
Tuesday, March 20, 2018
Topic(s) of this poem: hindi,woman
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