दौलत यहाँ सब कुछ नहीं होती Poem by Sanjeet Pathak

दौलत यहाँ सब कुछ नहीं होती

दौलत यहाँ सब कुछ नहीं होती,
सुना है ऊँची दीवारों वाले भी रोते बहुत हैं.
जिंदगी जीने की जद्दोजहद तो देखो,
जिद ने जरूरतों से समझौता कर लिया.
रही शिकायत जिनको अपने एकाकीपन से,
वही यहाँ रिश्तो को ढोते बहुत हैं.
किलकारी बरसो से आँगन में सुना नहीं कोई,
सो कर भी बरसो तक सपना बुना नहीं कोई,
सोचा हाथो की लकीरों से सब कुछ पाने की,
मुट्ठी बंद कर के भी अमीर होते बहुत हैं.
रोने के डर से क्यूँ हँसना ही भूल गए,
उजड़ने के डर से फिर बसना ही भूल गए...
क्या पाया खुद को खो कर जो दुनिया हासिल की?
थोड़ी सी और पाने की चाह में खोते बहुत हैं.
अपनी परछाई से कोई कब भाग सका है...
मर कर एक बार कोई कब जाग सका है...
भागते रहे ‘पाठक' जो शमशानों से दूर,
कमबख्त यहाँ आ के सोते बहुत हैं.

Sunday, April 24, 2016
Topic(s) of this poem: wealth
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