एक प्रश्न
फिर उभरा
हर बार की तरह
दिमाग में गरजा
जिंदगी को बेहद तस्सली से बुना
ग़मों के गुलशन से भी खुशी को चुना
आज जिंदगी घिस कर फटने लगी है
मैं रफू कर कर के हारी
फिर भी क्यों
ये चिथड़े हो कर मानी
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Bahut Khoob....Kya varnan kiya hai aapne zindagi ka...Ati Uttam.10++++
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आपकी कविता में भावों की तीव्रता पाठक को बहुत प्रभावित करती है. यहाँ बावजूद ईमानदार कोस्जिश के सब कुछ खो देने का ग़म उभर का सामने आता है. ऐसी गहरी अभिव्यक्ति कम ही देखने में आती है. धन्यवाद. कुछ पंक्तियाँ उद्धृत करता हूँ: जिंदगी को बेहद तस्सली से बुना /....फिर भी क्यों / ये चिथड़े हो कर मानी