आदम और हव्वा, आज भी प्रासंगिक है,
क्योंकि जिसे विद्वेष है ईश्वर से
और उसकी बनायी हर रचना से,
जिसने फुसलाया प्रथम पुरुष - प्रथम नारी को,
वह शैतान 'विषधर' कई रुपों में
धरती पर आज भी जिंदा है.
कभी वह बनता है साम्प्रदायिकता का दानव
ललचाता है फुसलाता है आदमी को
खाने को निषिद्ध फल -
‘बाबरी मस्ज़िद', ‘राम जन्मभूमि', ‘कश्मीर'
कभी भाषा, क्षेत्र, प्रादेशिकता का विवाद,
खींच देता है रेखाएं हिन्दू-मुसलमान की,
हिन्दू-सिख या फिर सिख-मुसलमान की,
मानव ही बन जाता है, मानवता का दुश्मन,
हिंसा, लूट और आगजनी बनते हैं प्रतीक
बर्बर आदिम पाशविकता की.
क्या कभी मुक्त हो पायेगा आदमी
शैतान के इस विषम चक्रव्यूह से
रहने के लिए मानव बनकर ऐसे समाज में,
जहॉं सब सुखी हों, स्वस्थ हों, सम्पन्न हों
राग-विराग-द्वेष-विग्रह से परे हों,
मानव ही जाति, मानवता ही संप्रदाय
और केवल राष्ट्र प्रेम धर्म हो
इस तरह धरती ही स्वर्ग का पर्याय हो.
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