गिलहरी बेचारी Poem by vijay gupta

गिलहरी बेचारी

गिलहरी बेचारी

गिलहरी अठखेलियां कर रही है,
विकास की परिभाषा से अनभिज्ञ,
बिजली के खंबे पर,
पेड़ की शाखाओं पर,
कभी-कभी डाबर की सड़कों पर,
उसे नहीं पता कि,
बिजली के खंभों में करंट दौड़ रहा है,
डाबर की सड़कों पर वाहन दौड़ रहे हैं,
वैसे तो उसे खतरा,
बिजली से, कुत्तों से,
बाज में उल्लूओं से,
शैतान बालकों की गुलेल से,
प्रकृति दल शत्रुओं से तो वो निपट लेगी,
पर मानव निर्मित खतरों से कैसे निपटें?
जंगल काट दिये,
पेड़ उजाड़ दिये,
घोसले बर्बाद कर दिये,
जीने के साधन छीन लिए,
ये सब हम मानवो ने
अपने स्वार्थ वश ही किया है।
कब आयेगा वो दिन,
जब मानव जीवो पर दयावान होगा,
उसके जीवन को संकटमुक्त करेगा,
खुद चैन से जीना सीखेगा,
औरों को भी चैन से जीने देगा।

Sunday, April 1, 2018
Topic(s) of this poem: helplessness
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vijay gupta

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meerut, india
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