वाजिब दाम Poem by vijay gupta

वाजिब दाम

वाजिब दाम

न जाने कब मिलेंगे ये वाजिब दाम?
न जाने कब रुकेगी किसानों
की आत्महत्या का सिलसिला?
न जाने कब खत्म होगी ये फ्री इकॉनॉमी?
जब जरूरत के हिसाब से उगेगा,
जरूरत के हिसाब से बिकेगा,
लाभ सहित मूल्य मिलेगा ।
वाजिब दाम मिलेगा,
खुशहाल किसान होगा,
फिर वो क्यों मरेगा?
बाजार उन्मुक्त है,
वहां बिचौलियों का डेरा है,
खरीदारों में मिली भगत है,
किसान लाचार है ।
नियंत्रण तो होना चाहिए,
किसानों पर भी,
खरीदारों पर भी,
मूल्यों पर भी,
मजबूरी ना हो बाजार में,
सरकारों को दखल देना होगा,
उत्पादन में भी,
बिक्री में भी,
भुगतान में भी ।
तभी सपना साकार होगा,
राम राज्य का,
खुशहाल भारत का,
खुशहाल किसान मजदूर का ।

Monday, April 2, 2018
Topic(s) of this poem: suicide
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vijay gupta

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meerut, india
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