वो भी एक इंसान है
हैरान हूं यह देखकर,
क्योंकि वह किलोल कर रहा।
खाट ना रजाई, पुआल में दबा
चैन की नींद सो रहा।
बालक है यही जन्मा
फिर भी औरों से भिन्न है।
निकलता है अलसुबह डगर पर अपनी,
ना कोई डोर ना ठिकाना कोई।
मिली जहां दो गज जगह,
पसर वहीं जाता है।
धरती को नापता डगर से,
कोई अवरोध-अवरोध नहीं उसके लिए।
जिंदगी का कोई मतलब उसके लिए,
सिर्फ और सिर्फ सुबह-शाम है।
काम नहीं धाम नहीं,
कूड़े के ढेर से भी झपट लेता है रोटी अपनी।
दुनिया के नियमों से ना वाकिफ,
अपनी ही दुनिया में मगन है।
परेशानी पर चिंता की कोई लकीर नहीं,
ना ही कल की चिंता उसे है।
जीवन वाला है अपनी मां का दुलारा भी,
वह जी रहा है आज मे, मौज में,
और बेफिक्री में।
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