"अहसास" Poem by vijay gupta

"अहसास"

"अहसास"

हाथ बढ़ा,
झिडकियाँ मिली,
कदम बढे,
बेरुखी दिखी,
कमसिन उम्र,
सिर पर काँटों का ताज,
बेफिक्री बरकरार,
बराबर कदम ताल,
इच्छाएँ नदारत,
सुबह-शाम का सफर,
तारों की छाँव,
उगते सूरज का सहारा,
शहर की पगडंडियाँ,
विशाल कर्म क्षेत्र उसका,
सांवली-सलोनी, पतली सी काया,
खाट ना बिछौना, धरती का सहारा।
साथी-सगी सभी ऐसे ही,
लड़ना, झगड़ना और मनाना।
बाप का साया,
जैसे ना कोई सहारा,
माँ की छाया,
लगता है कोई छलावा,
ना जन्म का पता,
ना पता जन्म स्थान का,
उम्र बढ़ती गयी,
ना इस बात का पता,
इस बात का अहसास हुआ,
शरीर पर गड़ रही लोगों की निगाह।

Thursday, September 27, 2018
Topic(s) of this poem: helplessness
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