"गंगा के धारे"
ये गंगा के धारे
ना जाने कब से बह रहे हैं,
ये गंगा के किनारे
ना जाने कब से बसे हैं।
ये पूरब का सूरज,
बिखेरे रश्मियां अपनी।
नजरें अटक जायें
उनको देखते-देखते।
जलमुर्गियों की कला बाजियां,
मन मोह लेती हैं।
घंटे-घड़ियालों की आवाज
मानवों को खींचती है।
घाटों पर ही फुँकते मुर्दे
मानव को आईना दिखा रहे हैं।
इन सबसे बेखबर
गंगा अविरल बहे जा रही है।
मानव इतिहास की साक्षी है ये
ना जाने कितनी सभ्यताएं जन्मी और मिट गई।
परंतु गंगा की नियति एक ही है,
बहना और अविरल बहना।
उसे नहीं मालूम
रास्ते में कौन आता है,
उसे तो प्यास बुझानी है
धरती को सीचंना है,
मानवों की आस्था को
सहेजते रहना है,
और अविरल गति से
बहना है और बहना है।
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