संकट
रेल की पटरी पर दौड़ती ट्रेन,
पीछे की ओर भागते हरे भरे जंगल,
अचानक धुँऐ का गुब्बार,
जंगलों में लगी आग,
कुछ ही देर बाद
कटे हुए पेड़ों का जंगल,
बेबसी में आसमान की ओर ताकते
पेड़ों के बचे हुए ढूंढ,
अपनी दारूण पीड़ा
एवं मानव के लालच को ब्याँ करते हुए।
जब स्मॉग छाता है,
पर्यावरण खराब होता है,
तब हम बगलें झांकते हैं
तरह-तरह के बहाने बनाते हैं।
सोशल मीडिया पर
छिड़ जाती है एक अनर्गल बहस
तर्क-वितर्क और
भाषणों का नीरस सफर
कुछ उपाय भी किए जाते हैं
एक अंतराल के बाद सब भूल जाते हैं।
परंतु एक बात तो तय है
यदि प्रकृति के साथ छेड़छाड़ होती है,
अथवा प्रकृति का अनावश्यक दोहन होता है
तब समस्या विकट ही होगी।
समाज को चुकानी होगी
अवश्य ही भारी कीमत।
बीमारियां, दम घोटूं वातावरण
हमें ही नहीं वरन हमारे बच्चों को भी
रुलाएगा, सताएगा
और जीवन-पानी का संकट पैदा करेगा ।
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