फाल्गुन Poem by vijay gupta

फाल्गुन

"फाल्गुन"
लो ये फाल्गुन भी आ गया,
करके पर्वतों की ऊंची-ऊंची चौटियाँ
सूरज की चमकीली किरणों पर सवार,
चुनरिया फूलों की ओढ़ कर,
धरती को सजाने व सवांरने
ये फाल्गुन आ ही गया।
निर्मल-निर्मल पवन,
मंद-मंद मुस्कान के साथ बह रही,
सरसों महकने लगी,
उम्मीदों की किरण जागने लगी
चेहरे खिलखिलाने लगे,
पर्व लोहड़ी का मनाने लगे
बसंत भी आने वाला है,
पतंगे आसमान में छाने लगी,
बहार बागानों में परसने लगी,
हरियाली मुंह दिखाने लगी।
धूप सेकने में व्यस्त
रामखिलावन शायद अनजान है,
फाल्गुन का उसे
जरा भी अहसास नहीं,
निर्मल ब्यार से
ना कोई मतलब,
वो तो परेशान है,
चिंताग्रस्त भी,
उसे अपनी साइकिल
ठीक जो करवानी है।

Sunday, January 20, 2019
Topic(s) of this poem: spring
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meerut, india
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