"अलाव"
वो अलाव की गर्मी,
वो मस्तों की टोली,
चर्चाओं के भवर में,
दुखती रंगों का मंजर,
याद आ रहा है,
वो पूस का महीना,
रात्रि का पहर,
टिमटिमाता तारा कोई-कोई,
जगमगाता चांद, आसमान पे,
पूरे शबाब पर।
समय बदल गया,
स्थान बदल गया।
वो आलम मस्ती का
न जाने कहां खो गया।
ना अलाव की गर्मी,
ना रिश्तो में गर्माहट,
इंसान अकेला पड़ गया,
चारों ओंर पतझड़ का सा माहौल,
किसी से कुछ कह नहीं सकता,
मुस्कुराने भर का काम रह गया,
सहते रहो तपिस जेह की,
फाल्गुन की मस्ती याद करते रहो,
वो अलाव की गर्मी,
मस्तों की टोली,
अब बीता कल हो गया,
समय बदल गया है,
इंसान अकेला और
खुदगर्ज हो गया है।
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