प्रेम प्रतिज्ञा Poem by Pritpal Singh

प्रेम प्रतिज्ञा

इस जगत में प्रेम खूब ढुंढा
हर राहों में, हर चौराहों में,
नादियों में, ख्यालों में
फूलो और प्यालों में।
पर माता सीता जैसा प्रेम न मिला।

ढुंढा हर पर्वत हर घाटी में
हिमालय की चोटी और धरती की छाती में।
सारे वृक्षों में और पत्तों में
ढुंढी मैंने भक्ति चंदन की डालों में
तरकस के हर एक बाण में
भक्ति मिली तो भगवान श्री राम की, श्री हनुमान में।

भ्राता प्रेम ढुंढने निकला में हर दिशा हर ओर,
ढुंढते ढुंढते मैं पहूँचा आकाश फिर पाताल लोक,
जीवो में ढुंढा, पक्षियों में ढुंढा,
फिर ढुंढा असुरो में और देवो में
भ्राता प्रेम का ज्ञान हुआ उस क्षण
जब देखा मैंने श्री लक्ष्मण।
भ्राता के लिए जिन्हें न्योछावर की अपनी निंद, सुख और चैन,
ऐसे हैं हमारे भ्राता श्री लक्ष्मण।

प्रेम मिला, मिली भक्ति और भ्राता प्रेम
अब बारी प्रतिज्ञा की जिसे मिलना है मुझे।
अर्जुन की प्रतिज्ञा सुनी, और सुनी ना जाने कितनों की,
प्रतिज्ञा की जिन्होंनें और फिर की उन्होनें उसे पूरी।
प्रण लिया तो है पुरा किया सबने,
प्रंतु हर प्रतिज्ञा के आगे श्री राम की प्रतिज्ञा है हर सिमा लांघे।
प्रतिज्ञा उनकी की वो लंका जाएंगे,
माता सीता को वापस लाऐंगें,
और मनुश्य जाति को असुरों के संग्राम से बचाएंगे।
तो बोलो श्री राम चंद्र की जय।

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Pritpal Singh

Pritpal Singh

Jamshedpur; Jharkhand; India
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