दो ग़ज़लें Poem by Sushil Kumar

दो ग़ज़लें

मुद्दत से अमन-शांति चिल्ला रहे हैं लोग।
बारूद रस्ते में बिछाए जा रहे हैं लोग।

होटों पे हंसी, मुस्कुराहट बरकरार है,
पर दिल में क्या है, ये नहीं बतला रहे हैं लोग।

दरिंदगी की सारी हदें पार कर चुके,
पर किस कदर मासूम नज़र आ रहे हैं लोग।

अच्छा नहीं लगता है इनके बीच अब 'कुमार'
हमको नहीं इंसान नज़र आ रहे हैं लोग।

(2)

करने को काम है नहीं, मस्ती को है जहाँ,
तक़दीर के सर दोष मढ़े जा रहे हैं लोग।

तूफ़ान के आने का उन्हें पूरा इल्म है,
पर नाव है कागज़ की चढ़े जा रहे हैं लोग।

ये दौर-ए-तरक्की उन्हें ले जायेगा कहाँ,
अनजान सी राहों पे बढ़े जा रहे हैं लोग।

इक्कीसवीं सदी के बीच से गुजर रहे,
ट्रेनों में क्या बसों में खड़े जा रहे हैं लोग।

कहने को आज चाँद पे पहुंचा है आदमी,
मंदिर ओ मकबरों पे लड़े जा रहे हैं लोग।
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