घरौंदा Poem by vijay gupta

घरौंदा

घरौंदा

तिनका-तिनका जोड़कर,
घरौंदा एक बनाया था।
सतरंगी सपने बुने थे,
जहाँ प्यार का बसाने को।
अचानक जलजला सा आया,
विनाश साथ लेकर आया।
बुलडोजर, कुल्हाड़ी लेकर,
मानवों का सैलाब आया।
घरौंदा जमींदोज कर दिया,
नीड़ भी उखाड़ दिया।
फिर क्या था?
चलने लगी विनाश की आंधियां।
घरौंदे ध्वस्त होने लगे,
नीड़ कट-कट कर जमींदोज होने लगे।
परिंदे हजारों बेघर हो गए,
बच्चे परिंदों के लहूलुहान हो गए।
किसी को जरा भी,
न आया रहम परिंदों पर।
विवेकहीन इंसान ने,
हरा भरा जंगल उजाड़ दिया।
वन संपदा खो दी,
अच्छी स्वांस से महरूम हो गया।
गर्व से बनाया कंक्रीट का जंगल,
अब अस्पताल बना रहा है।
यह इंसान ही है जो,
विकास और विनाश साथ-साथ करता है।

Monday, March 12, 2018
Topic(s) of this poem: grief
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vijay gupta

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meerut, india
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