इंसानी चट्टानें Poem by vijay gupta

इंसानी चट्टानें

इंसानी चट्टानें

एक जहां मैंने भी देखा है,
सड़क के उस पार नाले की तलहटी में।
बकरी का बच्चा, इंसान का बच्चा,
साथ-साथ खेलते हुए, बड़े होते हुए।
पन्नीयां बीनकर,
गुजारा करने वालों का संसार है वो।
ना हीं मच्छरदानी है,
ना हीं मच्छरों का खौफ।
प्लास्टिक की पन्नीयो की छत,
साथ ही साथ खपच्चियों का सहारा है।
उसी झौपड़ीनुमा घरों में रहते हैं,
इंसानों के बच्चे सहपरिवार।
खिलखिलाहट बरकरार है वहां पर,
कोई रंज नहीं अपनी गुरबत का।
लगता है इसी जिंदगी को,
उन्होंने अपनी नियति मान लिया है।
प्रसव पीड़ा होती है,
इंसान आकार ले लेते हैं,
न जाने कौन सी अजीब शक्ति है,
जो उन्हें सशक्त बनाती है।
गर्मी आती है चली जाती है,
ये यूं ही अविचल रहते हैं।
भयंकर तूफान आते हैं,
झौपड़ियां गिरा जाते हैं,
अगले ही पल,
झौपड़ियां खड़ी हो जाती है
ये इंसानी चट्टानें ही तो है,
जो करती है झंझावतों का मुकाबला।
ऐसे बहादुर लोगों को,
मैं सलाम करता हूं।

Friday, March 16, 2018
Topic(s) of this poem: determination
COMMENTS OF THE POEM
vijay gupta

vijay gupta

meerut, india
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