एक नेता का सफरनामा
लगता नहीं जी मेरा पढाई के जार में
फेल हो हो कर हो गया दागदार मैं।
घरवालों की चाह थी, लपेट लें, मगर
लगा न पाया मन, अपने कारोबार में।
घूम फिर कर छानता, मस्तियाँ हरदम
ज़माने लगा महफ़िलें, दोस्त यार में।
नेता गिरी का शौक आ के बैठा सिर
बड़े नेता के, दिया हाजिरी, दरबार में।
नेता के उनके काम से, खुद चला गया
बदले उनके हवालात भी, कई बार मैं।
आते जाते मिल गया, तजुर्बे का ढेर
और हो गया कानून का, जानकर मैं।
ढाढ़स मिला नेता से, दिलायेंगे टिकट
अपनी ही पार्टी का, अगले चुनाव में।
टिकट मिल गया, फिर जान लगा दिया
जीत गया चुनाव, पार्टी की बयार में।
जो लोग कभी रखते थे, नजर मुझ पर
उनको अब करता हूँ, ख़बरदार मैं।
- एस ० डी ० तिवारी
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भारत की राजनीति और जन सेवकों व नेताओं पर बहुत गहरा कटाक्ष. इस कविता में नेतागिरी का कच्चा चिटठा खोला गया है. एक मजेदार रचना के लिए धन्यवाद, तिवारी जी. नेता के उनके काम से, खुद चला गया बदले उनके हवालात भी, कई बार मैं। जो लोग कभी रखते थे, नजर मुझ पर उनको अब करता हूँ, ख़बरदार मैं।