कुछ ऐसे भी ज़माने थे I Poem by Dr. Sandeep Kumar Mondal

कुछ ऐसे भी ज़माने थे I

वो मंदिर की चौखट थी,
चप्पल जाने पहचाने थे I
वो छम छम बारिश में थिरकते,
घुंघरुओं के अफ़साने थेI
वो छत पर आती थी रोज़,
वो संगीत, नग्मे वो सूर
वो सपने, सपनो में खोए हुए,
हम रहते तो रोज़ाने थेI
कुछ ऐसे भी ज़माने थेI

वो समय जो बेशरम हुआ करता था,
कभी कभी देता था मौका,
लाख कोशिश और एक दीदार को,
हम उनके दीवाने थेI
कुछ ऐसे भी ज़माने थेI

वो कागज़ कोरा होता था,
अल्फ़ाज़ों के पैमाने थे,
कलम के सियाही की लकीर,
लिखते लिखते थम जाने थेI
वो हवा जो उनके बालों से,
छु कर हमको छूती थी,
जिस्म के रस्ते रूह तक,
खुशबू से सन जाने थेI
कुछ ऐसे भी ज़माने थेI

Tuesday, June 27, 2017
Topic(s) of this poem: pastime
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Dr. Sandeep Kumar Mondal

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dhanbad, jharkhand
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