My this poem is inspired from poem of 'Maya Angelou' 'Still I'll rise'.
मैं उड़ूँगी
इतिहास में चाहे निम्न करके लिखो,
मुझे अपने घुमावदार, झूठे शब्दों में।
चाहे मुझे गिरा दो, मिला दो धूल में,
कुचल दो, पटक कीचड़ भरे गड्ढों में।
मैं फिर भी उड़ूँगी, चाहे धूल सी ही उडूं, मैं उड़ूँगी।
तुम उदासियों से क्यों घिरे जाते हो?
क्या मेरा अदम्य साहस तुम्हें सताता है?
क्योंकि मैं चली जा रही, मेरे कक्ष में -
जैसे कोई तेल का कुंआ उदहता है!
सूरज की भांति और चाँद की भांति,
ज्वार-भाटा की अटल संभावनाओं की भांति,
ऊँची उठ रही आशाओं की भांति, उड़ूँगी
मैं तो उड़ूँगी, मैं फिर भी उड़ूँगी, मैं उड़ूँगी।
क्या तुमने मुझे टूटा हुआ देखना चाहा?
गड़ी ऑंखें, सिर झुका हुआ देखना चाहा?
आसुओं की भांति मेरे गिरते हुए कंधे
अन्तःमन निर्बल, रोता हुआ देखना चाहा?
क्या मेरी गर्मियां तुम्हें अपराधी बनाती हैं?
क्या उनसे तुमको दोषपूर्ण मुश्किलें देती हूँ?
क्योंकि हंसती हूँ, जैसे मेरे पास सोने की खान है,
जिसे मैं अपने ही आंगन से खोद लेती हूँ।
मुझे तुम चाहे अपनी आँखों से काट डालो,
बेशक अपने तीखे शब्दों से मार डालो,
अपनी घोर घृणा में झोंको, मैं नहीं मुड़ुँगी।
हवाओं की भांति उड़ूँगी, मैं तो उड़ूँगी, हाँ उड़ूँगी।
क्या मेरे भीतर की कामुकता तुम्हें सताती है?
क्या यह सब तुम्हें अचंभित कर देता है -
कि मैं नाचती हूँ क्योंकि हीरों की मालकिन हूँ,
जो मेरे बदन में ही कहीं छुपा होता है।
मैं लहराता हुआ, विशाल एक सागर हूँ।
फूलती और सिकुड़ती ज्वार सहती गागर हूँ।
अम्बर में, घेरे घन की भांति घुमडूँगी।
मेघ सी उड़ूँगी, मैं तो उड़ूँगी, मैं उड़ूँगी।
बीते शर्म के झोपड़ों से निकल कर, मैं उड़ूँगी।
पिछले गहरे दुखड़ों से उठ कर, मैं उड़ूँगी।
आतंक और डर को पीछे छोड़कर, उड़ूँगी।
एक दिन अनोखे ढंग से पव फूटने पर, मैं उड़ूँगी।
मैं पूर्वजों के दिए सौगात ढो कर लायी हूँ।
मैं दास का सपना और उम्मीद बन के आयी हूँ।
लो मैं उड़ रही, मैं उड़ रही, मैं उड़ रही....
- एस. डी. तिवारी
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