लड़खड़ाते से कदम Poem by Saroj Gautam

लड़खड़ाते से कदम

सभी के लिए क्यों नहीं, सर्वदा रास्ता खुला सा हो?
अपने अपने किस्से-कहानियां, बयां खूब करने को!
चलने का हो अधिकार, भले ही कदम कितने ही भटकें हो!
अपना अपना जीवन, अतरंगी - सतरंगी जीने को!

कुछ आत्माऐं, जीवन के ओरों - छोरों पर भी कर सकें हैं नृत्य!
अस्तित्व से बेपरवाह, दोनो के बीच भी हो सकें हैं आश्वस्त!
क्षणभंगुर से ये प्राणी, साज-सज्जा, लाज-लज्जा मुक्त,
अंत गले लगाते बन सशक्त, अविकल, उन्मुक्त!

गर जरूरी, मन्दिरों के मंडपों में भी गूंजे हैं, नास्तिक सी आवाजें!
गर जरूरी, नास्तिक नम नेत्रों संग लाए, मार्गदर्शक मंत्र स्वयं खोजकर!
क्यों ही फिर सताएं, गैरजरूरी सी, आपकी भी चुनौतियां उन्हें!
आंतरिक दोष-युक्त, होगा आप ही का, मन उजागर!

लड़खड़ाते कदमों से ही सही, जो धरा पर, सर्वदा विचरने को तैयार!
लय उनकी, जो जरा टूटी सी हुई, फिर भी प्रतीत उतनी ही सार्थक!
जिनमें जीने का साहस, होने का मांगें, जो अधिकार!
बेपरवाह आदेशों, आवेशों, अवसादों से, होने हमेशा मुक्त!

सरोज

लड़खड़ाते से कदम
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
The poem is exploration of individual freedom, self-expression, and the pursuit of authenticity in the face of societal constraints and expectations. It is about resilience of the human spirit and the right to live life on one's own terms, even when faced with challenges and obstacles.
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