उर्मिला 1, गजल
बिछुड़ सजन से अपन, घबराने लगी
उर्मिला मन ही मन, अकुलाने लगी।
वन गमन को लखन, जब घर से चले
संग जाने को उनके, मनाने लगी।
साथ जाना सजन के, मना हो गया
सफल तप हो, स्वयं को तपाने लगी।
बीत चौदह बरस, जाँयगे किस तरह
सोचती रात ऑंखें, जगाने लगी।
देखती आसमां, अंगना में खड़ी
चांदनी में अकेले, नहाने लगी।
आस मन में लिये, फिर उगेगा रवी
घोर तम में लिये, दिल जलाने लगी।
दिन बिताती बिरह में, तपस्विनी बनी
लखन सकुशल रहें, नित मनाने लगी।
उर्मिला 2
उर्मिला उरमिला खिलखिलाने लगी
कष्ट चौदह बरस की भुलाने लगी।
हो चली ख़त्म, चौदह वरष की विरह
नैन राहों, पिया के बिछाने लगी।
उरमिला, उर्मिला का, सदा यूं रहा
देख आँखे, लखन को जुड़ाने लगीं।
खो दिया जिंदगी की सुनहरी घडी
फल मधुर हर एक पल का पाने लगी।
बीत कैसे गया रह अकेले समय
याद करके व्यथा सब बताने लगी।
सींच डाली चमन, प्यार में शुष्क मन
कुम्हलाये गुलों को खिलाने लगी।
बुझ चुके सब दिवे हृद के जल गये
रोशनी से दिवाली मनाने लगी।
एस० डी० तिवारी
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दशहरा और दिवाली पर्व की रोशनी में रामायण के एक भूले हुए पात्र को आपने बहुत खूबसूरती से स्पॉट लाइट में ला कर खड़ा कर दिया है. इस मनोहारी हिंदी ग़ज़ल के लिए आपको धन्यवाद, प्रिय कवि मित्र.