ज़माने भर की रौनक है, मगर अच्छा नहीं लगता
कोई दरगाह या कोई दर, मुझे अच्छा नहीं लगता
न भाता अब ये आँगन ही, न भातीं अब ये दीवारें
तुम्हारे बिन मुझे ओ माँ ये घर अच्छा नहीं लगता
कवि अभिषेक मिश्रा 'अपर्णेय'
This poem has not been translated into any other language yet.
I would like to translate this poem
बहुत सुंदर, बहुत मधुर. माँ की ममता अतुलनीय है. इसी ममता को समर्पित आपकी कविता कथ्य तथा अभिव्यक्ति में बहुत ऊँची है. धन्यवाद, मित्र.