बापू, आओ एक बार फिर Poem by Upendra Singh 'suman'

बापू, आओ एक बार फिर

बापू, आओ एक बार फिर,
आओ अपने देश.

तुम तो समझे जीत गए हम, पर अब तो हैं रीत गए हम.
मानस में अब भी बैठा है, वही फिरंगी वेश.
बापू आओ एक..........

भाषा अपनी अपमानित है, अंग्रेज़ी मानस मानित है.
ये कैसी स्वाधीनता, है दासता अशेष,
बापू आओ एक..........

बन्दरबाँट मची है घर में, आज़ादी है अभी अधर में.
दिल्ली दर्द न जाने जन की, कैसे कटे कलेश.
बापू आओ एक..........

संसद में नित घमासान है, कहते हैं भारत महान है,
बंधक तेरा लोकतंत्र है, ज़ख़्मी हुआ स्वदेस.
बापू आओ एक..........

धर्मराज घर गोरख धंधा, न्याय हो चला है अब अँधा.
जिसकी लाठी भैंस उसी की, दिल को लगी ठेस,
बापू आओ एक..........

राजनीति छल रही देश को, हवा दे रही राग द्वेष को.
सत्ता की इस जोड़-तोड़ में, ऐसा हुआ भदेस.
बापू आओ एक..........

धर्मों की अब टकराहट है, फिर तूफानों की आहट है.
आतंकी हैं घात लगाए, बलवों का अंदेश.
बापू आओ एक..........

सत्य अहिंसा पर संकट है, मानवता का हाल विकट है.
हथियारों की होड़ मची है, बचा है क्या अब शेष.
बापू आओ एक..........

लूट मची है घर में अपने, टूटे सब स्वराज के सपने.
लक्ष्मी को वनवास मिला है, जमा है धन परदेश.
बापू आओ एक..........

हाथों को अब काम नहीं है, योग्यता का दाम नहीं है.
राजनीति की चाल देखकर, प्रतिभा चलीं विदेश.
बापू आओ एक..........

अपनों को कैसे समझाएं, कैसे उनको राह दिखायें.
बाड़ खा रही खेत है देखो, बदल गया परिवेश.
बापू आओ एक..........

क्या-क्या मैं तुमको बतलाऊं, देश का क्या-क्या हाल सूनाऊँ.
अपने ही अपनी जड़ खोदें, क्या-क्या कहूँ संदेस.
बापू आओ एक..........
उपेन्द्र सिंह

Thursday, December 3, 2015
Topic(s) of this poem: country
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