समझौता Poem by Tabish Raza

समझौता

तुम वो तो बिलकुल नहीं जिसकी आरज़ू थी हमें
ख्वाहिशें और भी कई दफ़न है मेरे
उम्र तुम्हारी अभी कच्ची है कुछ
कुछ पुख्तगी है कम इशारों में मेरे

इश्क़ तो हमे पहले भी हुआ है इश्क़ के ख्याल से
एक मोहतरमा की तस्वीरों से और उनकी आवाज़ से
बातें उनसे की थी बोहत रातो में जाग कर
सुनने से मेहरूम थीं वो शायद
थी शायद हवा वो कसमे वो बातें मेरे

ये रंग रूप ना लुभाए अब और
पर कायल हुए बैठे है तेरे
तुम वो तो बिल्कुल नहीं जिसकी आरज़ू थी हमे
और घायल हुए बैठे है तेरे

Wednesday, July 29, 2020
Topic(s) of this poem: need for human
COMMENTS OF THE POEM
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Tabish Raza

Tabish Raza

ranchi
Close
Error Success