मां Poem by Prem Prakash Rai

मां

जब तुम करीब होती हो,
ग़म कोसों दूर होता है।
तुम्हारे आंचल की छांव में
जन्नत का सुख नसीब होता है।
तुम्हारी लोरी में
अद्भुत सुकुन मिलता है।
बस तुम्हारा हाथ थामें
सो जाने को मन करता है।
कभी न उठने के लिए
ताकि तुम इसी तरह
सदा गाती रहो;
और मैं सदा सुनता रहूं,
मुक्ति के बोल।
तुमको देखकर ही
पूरी हो जाती है हर अरदास।
तुम तो हो धरती पर
ईश्वर का अवतार।
तुम्हारे चरणों की गंगा में
अठखेलियां करने का मन करता है।
तुम्हारे हाथों से पिटने का मन करता है।
मां तुम कहां हों,
तुम्हें न पाकर,
रोने को मन करता है।
तुम मेरा हाथ कभी मत छोड़ना,
मैं आज भी उतना ही अबोध हूं
जितना जन्म से पूर्व तुम्हारी कोख में।
मां आज तुम बूढ़ी हो गई हो,
पर मेरे प्रति तुम्हारे विचार
अभी भी पहले जैसे ही हैं।
सुनती हो तुम्हारे बेटे की
नौकरी लग गई है,
प्रमोशन भी मिला है;
बस तुम कुछ दिन और
दुनिया देखना,
मैं बचपन से अब तक के
सारे अरमान पूरे कर दूंगा;
पर तुम्हें जीना होगा
ताकि तुम अपने लगाए हुए वृक्ष का
फल खा सको।
पर ये क्या,
तुम बोल क्यों नहीं रही हो;
लगता है तुमने भी परोपकार के लिए
जन्म लिया था।
इसलिए वृक्ष लगाकर
चली गई।
पर मां, मैं जड़ जरूर हूं,
पर मेरी भी आंखों से
आंसू टपकते हैं।
विश्वास न हो तो,
मेरी टहनी टोड़ कर देख लो।
मां तुम फिर आना,
मैं सदियों सदियों तक
खड़ा रहूंगा
ताकि लोग तुम्हारे परोपकार को
याद रख सकें।
और उनकी दुआओं से
तुम्हारी आत्मा को विश्रांति मिल सके।
पर मैं प्रतीक्षा करता रहूंगा,
तुम जरू़र आना,
मेरी मां, मेरी प्यारी मां।

POET'S NOTES ABOUT THE POEM
I love my mother very much. She has been a great sufferer in her life.The present poem is a salute to her hard struggle with life which will prove a great inspiration for others like me.
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