ओ घघरी Poem by Dr. Ravipal Bharshankar

ओ घघरी

Rating: 5.0

ओ घघरी, मनघट की तु प्यासी, पनघट चल री सखी

झर झर बहता झरना कितना, प्यारा लगे तुझे ओ घघरी
दूर से मिलने तुझसे आए, यारा तेरा तुझे ओ घघरी

सोच रहीं हूँ मन का मेरे, मित मिले इन राहों पर
देसी हो या हो परदेसी, ना हो दिल का सौदागर
नेक हो बंदा जैसे चंदा, क्या सोच रहीं हैं ओ घघरी

(डॉ. रविपाल भारशंकर)

Monday, December 29, 2014
Topic(s) of this poem: meditation
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 29 December 2014

इस सुन्दर गीत को यहाँ शेयर करने के लिये धन्यवाद, डॉ. रविपाल जी. वैसे इस गीत को आप विस्तार देते तो और अच्छा रहता. किंतु अपने इस रूप में भी इसका सौंदर्य प्रगट होता है. निम्न पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं: सोच रहीं हूँ मन का मेरे, मीत मिले इन राहों पर देसी हो या हो परदेसी, ना हो दिल का सौदागर नेक हो बंदा जैसे चंदा, क्या सोच रहीं है ओ घघरी

0 0 Reply
READ THIS POEM IN OTHER LANGUAGES
Close
Error Success