अमीबा से ह्युमन तक Poem by Dr. Ravipal Bharshankar

अमीबा से ह्युमन तक

Rating: 5.0

तुम एक बाप की औलाद नहीं हो
तुम कुछ भी कहो
और तुम्हारी मां की गवाही नहीं चलती
अनेक दु: ख अदल आए हो तुम
अनेक दु: ख बदल आए हो तुम
अमिबा से ह्युमन तक
अनेक योनिओ से गुजर आए हो तुम
तुम तो एक जात के भी नहीं हो
तुम कौन हो, कौन हो तुम
जहाँ से आते हो, वहीं हो जाते हो गुम
न आकार, न इकार, न न-होने का तम
पैदा होने को तैयार हरदम

(डॉ. रविपाल भारशंकर)

Monday, December 29, 2014
Topic(s) of this poem: meditation
COMMENTS OF THE POEM
Rajnish Manga 29 December 2014

मानव मानव के बीच में दिखाई देने वाला अंतर मानव जाति के आरम्भ से ही विद्यमान है. हर युग में युद्ध, हिंसा और द्वेष की प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती हैं. गुरू, ज्ञान और विवेक के बावजूद मानव प्रकृति में ठहराव नहीं आया. मैं समझता हूँ कि आपकी कविता में प्रकारांतर से यही विवेचन पाठकों के विचारार्थ रखा गया है. इस सुंदर कविता के लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ, डॉ साहब.

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