तुम एक बाप की औलाद नहीं हो
तुम कुछ भी कहो
और तुम्हारी मां की गवाही नहीं चलती
अनेक दु: ख अदल आए हो तुम
अनेक दु: ख बदल आए हो तुम
अमिबा से ह्युमन तक
अनेक योनिओ से गुजर आए हो तुम
तुम तो एक जात के भी नहीं हो
तुम कौन हो, कौन हो तुम
जहाँ से आते हो, वहीं हो जाते हो गुम
न आकार, न इकार, न न-होने का तम
पैदा होने को तैयार हरदम
(डॉ. रविपाल भारशंकर)
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मानव मानव के बीच में दिखाई देने वाला अंतर मानव जाति के आरम्भ से ही विद्यमान है. हर युग में युद्ध, हिंसा और द्वेष की प्रवृत्तियाँ देखने को मिलती हैं. गुरू, ज्ञान और विवेक के बावजूद मानव प्रकृति में ठहराव नहीं आया. मैं समझता हूँ कि आपकी कविता में प्रकारांतर से यही विवेचन पाठकों के विचारार्थ रखा गया है. इस सुंदर कविता के लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ, डॉ साहब.