मेरी कुछ पंक्तियाँ, कही दूर सरहद पार उस माँ के लिए, जिसके आँशु रुकने का नाम ही नहीं ले रहे होगे, और उस मासूम बचपन को समर्पित हैं जो घर से तो गया था ये कह कर कि माँ तू चिंता मत करना मैं स्कूल से सीधा घर ही आऊंगा, पर बीच में ही उसे दहशतगर्दी का शिकार होना पड़ गया.. दोस्तों मेरा सवाल उन दहशतगर्दों से नहीं बल्कि उस आसमान में बैठे फ़रिश्ते है जिसने इन दहशतगर्दों को ज़मीं पार उतारा है..मुझे बता ऐ खुदा, क्या वास्तव में ये सब तेरी ही मर्ज़ी से हो रहा है..
गर तेरी ही दुनिया में खुदा, अब ये हश्र हमारा होगा
फिर मैं अब मान लेता हूँ, ये इंसाफ भी तुम्हारा होगा
किसे मालूम था कि कोई इतना भी, नाकारा होगा
कहो, अब ऐसा मज़हब यहाँ किसको गबारा होगा
दुश्मन ने जब खंज़र उनके सीने में उतारा होगा तो
मरते वक़्त बच्चों ने, किस किस को पुकारा होगा
अपने लाल को उसने लाडो से कितना संबारा होगा
आखिरी वक़्त, जिसने सीने से लगाके दुलारा होगा
बता ऐ रब मेरी उस माँ का अब, कैसे गुज़ारा होगा
जिसके बेटे ने मरते वक़्त, माँ-माँ कह पुकारा होगा
मत भूलों कि तुम्हारा भी, इक दिन वही इंसाफ होगा
फिर खुदा के सामने तुम्हारा भी यूँ किस्सा साफ होगा
महज़ बस इक बार जो तू पंहुचा उस खुदा के दरबार में
याद रख, वहाँ फिर न तेरा कोई भी गुनाह, माफ़ होगा''
''कवि अभिषेक ओमप्रकाश मिश्रा''
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