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विकट विघ्न जब भी आता,
या तो संबल आ जाता है,
या जो सुप्त रहा मानव में,
ओज प्रबल हो आता है।
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भयाक्रांत संतप्त धूमिल,
होने लगते मानव के स्वर,
या थर्र थर्र थर्र कम्पित होते,
डग कुछ ऐसे होते नर ।
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विकट विघ्न अनुताप जला हो,
क्षुधाग्नि संताप फला हो,
अति दरिद्रता का जो मारा,
कितने हीं आवेग सहा हो ।
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जिसकी माता श्वेत रंग के,
आंटे में भर देती पानी,
दूध समझकर जो पी जाता,
कैसी करता था नादानी ।
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गुरु द्रोण का पुत्र वही,
जिसका जीवन बिता कुछ ऐसे,
दुर्दिन से भिड़कर रहना हीं,
जीवन यापन लगता जैसे।
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पिता द्रोण और द्रुपद मित्र के,
देख देखकर जीवन गाथा,
अश्वत्थामा जान गया था,
कैसी कमती जीवन व्यथा।
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यही जानकर सुदर्शन हर,
लेगा ये अपलक्षण रखता,
सक्षम न था तन उसका,
पर मन में आकर्षण रखता ।
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गुरु द्रोण का पुत्र वोही क्या,
विघ्न बाधा से डर जाता,
दुर्योधन वो मित्र तुम्हारा,
क्या भय से फिर भर जाता?
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थोड़े रूककर कृपाचार्य फिर,
हौले दुर्योधन से बोले,
अश्वत्थामा के नयनों में,
दहक रहे अग्नि के शोले ।
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घोर विघ्न को किंचित हीं,
पुरुषार्थ हेतु अवसर माने,
अश्वत्थामा द्रोण पुत्र,
ले चला शरासन तत्तपर ताने।
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अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
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