बात इत्ती
कैसे कह दूँ कि हमारे वे हबीब न थे।
बात इत्ती कि पाने के तरकीब न थे।
मिलाते क्योंकर, वो ताल से ताल?
हम उनके अगर, बहुत करीब न थे।
अपने रस्ते, भटकाते खुद ही क्यों?
बहकाने वाले, अगर रकीब न थे।
ख्वाईशें तो उनकी, कर देते ही पूरी;
किसी तौर से, हम भी गरीब न थे।
अल्ला को तोहमत दे झाड़ लें पल्ला
क्योंकर हम, इतने खोटे नसीब न थे।
उनकी यादों में, गुजारें जिंदगी सारी,
जियें अकेले, इतने भी शरीफ न थे।
एस० डी० तिवारी
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