हर जन की अभिलाषा होती, हो उसका बच्चों का घर
घर में भरी खुशियां होती, होता जो बच्चों का घर।
वह घर भी क्या घर है, जहाँ न चिल-पों बच्चों की।
लगता लौट आया बचपन, जब चर्चा हो बच्चों की।
दीवारो पर खींची रेखाएं, उकेरती नाना तस्वीरें।
अजब गजब बिम्ब बनाते, खींच नन्हे हाथ, लकीरें।
उन्हें सुलाने आतीं परियां, नीले अम्बर से उतर ।
घर में भरी खुशियां होती, होता जो बच्चों का घर।
देख बादलों को मन ही मन, आकृति अनेक बनाते।
चाँद सितारे देख कर के, वे बीच भ्रमण कर आते।
खेलते वे हैं गुड्डे गुड्डी से, परियां होतीं साथ।
होता कोई द्वेष न मन में, बांटे धर्म ना जात।
सपनों में खो जाते, जब, दृष्टि घुमाते नीलाम्बर पर।
घर में भरी खुशियां होती, होता जो बच्चों का घर।
घर वह सूना सूना लगता, जहाँ न हो किलकारी।
होली भी फीकी सी लगाती, बिन नन्ही पिचकारी।
फूलझड़ी पटाखे मिठाई, मनती खूब दिवाली।
चाहे मने कोई त्यौहार, हो बच्चों से खुशहाली।
उड़ते चलते है जमीन पर, सिर रहता नभ ऊपर।
घर में भरी खुशियां होती, होता जो बच्चों का घर।
बूढ़े भी बच्चे हो जाते, पा पोती पोतों का संग।
कागज के जहाज उड़ाते, भर अपने मन में उमंग।
धमाचौकड़ी चहल पहल, चलती है मस्ती हुड़दंग।
शरारतों में मिल जाता है, हम सब को अति आनंद।
विस्तर बनाते क्रीड़ा स्थल, तकिया बीच पटक कर।
घर में भरी खुशियां होती, होता जो बच्चों का घर।
न कटुता न कलुषित मन, लड़ कर भी हो जाते एक।
फूलों सा कोमल ह्रृदय, कमल दल सा बह जाते वे ।
तनिक देर में रूठ वे जाते, मनाने में न लगती देर।
उनका मन बहला देते बस, मिटटी के भालू व शेर।
नई वस्तु आने पर उनकी, खुशियों से घर जाता भर।
घर में भरी खुशियां होती, होता जो बच्चों का घर।
दिन में स्कूल चले जाते जब, कर्फ्यू जैसा लगता है।
कितना भव्य बना भवन हो, बच्चों से ही सजता है।
माँ रोने का बहाना करती, तब महावीर हो जाते हैं।
रक्षा का वे ढाढस देते, राक्षस भी मार भगाते हैं।
बच्चों से लगता है घर, स्वर्ग लोक से भी बढ़कर।
घर में भरी खुशियां होती, होता जो बच्चों का घर।
(C) एस ० डी ० तिवारी
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