Jivan (Ak Path) Poem by Vivek saswat Shukla

Jivan (Ak Path)

Rating: 3.0

संघर्षों के बड़े शिखर हैं,
पथ पर मेरे अड़े खड़े हैं।
चलना मुश्किल इन राहों पर,
पैरों में कांटे गड़े पड़े हैं ।
कर्तव्य पथ से जो मुंह फेरे,
हुए कर कहलाते हैं।
मेहंदी के पत्ते पिसते जाते,
तब लाली ले आते हैं।


सहती है वार पाषाण शिला,
तब प्रतिमा में ढलती है।
पर्वत काट निकलते नदियां,
तब मस्तक पर चढ़ती हैं।
सोने सा यदि बनना तुमको,
अग्नि मध्य में तपना होगा।
हीरे की चमक चाहते हो यदि,
धारों पर धार को सहना होगा।


सूरज ढलता चला गया अब,
अंधेरों का साया है।
गया कभी था जो प्रकाश,
लौट नहीं वह आया है।
अपनी चिंगारी के दम पर ही,
अपना इतिहास बनाना होगा।
रणभूमि से वापस अब,
एक विजय पताका लाना होगा।


एक लिंग को शीश नवा,
मन भीतर सुंदर दीप जला।
हृदय को अपने झिंझोर जरा,
भुज डंडों को मरोड़ जरा।
निखर निडर नयनो के भीतर,
कर दे एक चिंगारी स्थिर।
हे जीवन के भिक्षुक राजा,
रणभूमि में अब फिर से छाजा।

Jivan (Ak Path)
POET'S NOTES ABOUT THE POEM
Life is a struggle and it needs companions who walk on the path of struggle.
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